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"कनुप्रिया - चौथा गीत / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर

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यह जो दोपहर के सन्नाटे में
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किनारे रख
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मैं घण्टों जल में निहारती हूँ
  
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क्या तुम समझते हो कि मैं
यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र<br>
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इस भाँति अपने को देखती हूँ ?
किनारे रख<br>
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मैं घण्टों जल में निहारती हूँ<br><br>
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इस भाँति अपने को देखती हूँ ?<br><br>
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मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है
यमुना के नीले जल में<br>
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यह तुम हो जो सारे आवरण दूर कर
मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-बिम्ब, और उस के चारों<br>
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मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम
ओर साँवली गहराई का अथाह प्रसार जानते हो<br>
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अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह आलिंगन में पोर-पोर
कैसा लगता है-<br><br>
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कसे हुए हो !
  
मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है<br>
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यह क्या तुम समझते हो
यह तुम हो जो सारे आवरण दूर कर<br>
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घण्टों-जल में-मैं अपने को निहारती हूँ
मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम<br>
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नहीं, मेरे साँवरे !</poem>
अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह आलिंगन में पोर-पोर<br>
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कसे हुए हो !<br><br>
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यह क्या तुम समझते हो<br>
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घण्टों-जल में-मैं अपने को निहारती हूँ<br>
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नहीं, मेरे साँवरे ! <br>
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19:55, 28 मई 2020 का अवतरण

यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र
किनारे रख
मैं घण्टों जल में निहारती हूँ

क्या तुम समझते हो कि मैं
इस भाँति अपने को देखती हूँ ?

नहीं, मेरे साँवरे !
यमुना के नीले जल में
मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-बिम्ब, और उस के चारों
ओर साँवली गहराई का अथाह प्रसार जानते हो
कैसा लगता है-

मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है
यह तुम हो जो सारे आवरण दूर कर
मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम
अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह आलिंगन में पोर-पोर
कसे हुए हो !

यह क्या तुम समझते हो
घण्टों-जल में-मैं अपने को निहारती हूँ
नहीं, मेरे साँवरे !