"कनुप्रिया - दूसरा गीत / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर
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यह जो अकस्मात् | यह जो अकस्मात् | ||
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एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो- | एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो- | ||
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत | सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत | ||
− | तुम कब से मुझ में छिपे सो रहे | + | तुम कब से मुझ में छिपे सो रहे थे? |
सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को- | सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को- | ||
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तुम मेरे जिस्म के एक-एक तार से | तुम मेरे जिस्म के एक-एक तार से | ||
झंकार उठोगे | झंकार उठोगे | ||
− | सुनो ! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत | + | सुनो! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत |
इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम | इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम | ||
− | कब से मुझ में छिपे सो रहे | + | कब से मुझ में छिपे सो रहे थे?</poem> |
19:34, 1 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
यह जो अकस्मात्
आज मेरे जिस्म के सितार के
एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो-
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
तुम कब से मुझ में छिपे सो रहे थे?
सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को-
पोर-पोर को अवगुण्ठन में ढँक कर तुम्हारे सामने गयी
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी,
मैं ने अक्सर अपनी हथेलियों में
अपना लाज से आरक्त मुँह छिपा लिया है
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी
मैं अक्सर तुम से केवल तम के प्रगाढ़ परदे में मिली
जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी,
पर हाय मुझे क्या मालूम था
कि इस वेला जब अपने को
अपने से छिपाने के लिए मेरे पास
कोई आवरण नहीं रहा
तुम मेरे जिस्म के एक-एक तार से
झंकार उठोगे
सुनो! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम
कब से मुझ में छिपे सो रहे थे?