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कश्मीर / गुलाब खंडेलवाल

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शीत के संतरी उनींदे-से
बर्फ के फूल कि तमगे तन पर
जहर झड़ रहे रत्न-कण अबींधे-से
. . .
मैं प्रवासी कि जा रहा हूँ आज
शून्य में टूट रही-सी आवाजआवाज़
स्वप्न का ताजमहल मिटता-सा
कब्र क़ब्र में लौट रही-सी मुमताज
. . .
काँपता  तीर बन गया हूँ मैं
 
अश्रु-हिम की फुहार मेरी है
घाटियों में पुकार  मेरी पुकार मेरी है चाँद-सा शून्य में टंगा टँगा मैं आज
नीलिमा यह अपार मेरी है
 
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