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कहते हो अब मेरे मज़लूम पे बे-दाद न हो / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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कहते हो अब मेरे मज़लूम पे बे-दाद न हो
सितम-ईजाद हो फिर क्यूँ सितम ईजाद न हो

नहीं पैमान-ए-वफ़ा तुम ने नहीं बाँधा था
वो फ़साना ही ग़लत है जो तुम्हें याद न हो

तुम ने दिल को मेरे कुछ ऐसा किया है ना-शाद
शाद करना भी जो अब चाहो तो ये शाद न हो

जो गिरिफ़्तार तुम्हारा है वही है आवाज़
जिस को आज़ाद करो तुम कभी आज़ाद न हो

मेरा मक़सद के वो ख़ुश हों मेरी ख़ामोशी से
उन को अंदेशा के ये भी कोई फ़रियाद न हो

मैं न भूलूँ ग़म-ए-इश्क का एहसाँ ‘वहशत’
उन को पैमान-ए-मोहब्बत जो नहीं याद न हो