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"कहीं पे धूप / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
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बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।
  
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खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।<br><br>
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सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए
  
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा<br>
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दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए।<br><br>
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सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए।<br><br>
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शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।
  
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ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।<br><br>
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यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।
 
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शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।<br><br>
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ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है<br>
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यहां बबूल के साये में आके बैठ गए। <br><br>
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11:29, 4 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।

जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।

लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।

ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।