भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहे कौन उठ दोपहर हो गई / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:31, 24 फ़रवरी 2024 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहे कौन उठ दोपहर हो गई।
जगा सूर्य जब भी सहर हो गई।

लगा वक़्त इतना उन्हें राह में,
दवा आते-आते ज़हर हो गई।

बँधी एक चंचल नदी प्यार में,
तो वो सीधी-सादी नहर हो गई।

समंदर के दिल ने सहा ज़लज़ला,
तटों पर सुनामी क़हर हो गई।

सियासत कबूली जो मज़लूम ने,
तो रोटी-लँगोटी महर हो गई।