भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कहो तो लौट जाते हैं / वसी शाह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
 
कहो तो लौट जाते हैं…
 
कहो तो लौट जाते हैं…
 
चलो एक फैसला करने शजर की ओर जाते हैं
 
चलो एक फैसला करने शजर की ओर जाते हैं
अभी काजल की डोरी सूर्ख़ गालों तक नहीं आई
+
अभी काजल की डोरी सुर्ख़ गालों तक नहीं आई
 
ज़बाँ दातों तलक है, ज़हर प्यालों तक नहीं आई
 
ज़बाँ दातों तलक है, ज़हर प्यालों तक नहीं आई
 
अभी तो मुश्क-ए-कस्तूरी ग़ज़ालों तलक नहीं आई
 
अभी तो मुश्क-ए-कस्तूरी ग़ज़ालों तलक नहीं आई

23:43, 28 नवम्बर 2014 का अवतरण

कहो तो लौट जाते हैं....
अभी तो बात लम्हों तक है, सालों तक नहीं आई
अभी मुस्कानों की नौबत भी नालों तक नहीं आई
अभी तो कोई मज़बूरी ख़यालों तक नहीं आई
अभी तो गर्द पैरों तक है, बालों तक नहीं आई
कहो तो लौट जाते हैं…
चलो एक फैसला करने शजर की ओर जाते हैं
अभी काजल की डोरी सुर्ख़ गालों तक नहीं आई
ज़बाँ दातों तलक है, ज़हर प्यालों तक नहीं आई
अभी तो मुश्क-ए-कस्तूरी ग़ज़ालों तलक नहीं आई
अभी रुदाद-बे-उन्वाँ हमारे दर्मियाँ है दुनियावालों तक नहीं आई
कहो तो लौट जाते हैं…
अभी नज़दीक है घर, और मंजिल दूर है अपनी,
मबादा नार हो जाए, ये हस्ती नूर है अपनी
कहो तो लौट जाते हैं…
ये रस्ता प्यार का रस्ता;
रसन का, दार का रस्ता बहुत दुश्वार है जानाँ
कि इस रस्ते का हर ज़र्रा भी इक कोहसार है जानाँ
कहो तो लौट जाते हैं…
मेरे बारे न कुछ सोचो…
मुझे तय करना आता है रसन का, दार का रस्ता…
ये आसिबों भरा रस्ता ये अंधी घार का रस्ता
तुम्हारा नर्म-ओ-नाज़ुक हाथ हो अगर मेरे हाथों में,
तो मैं समझूँ के जैसे दो जहाँ है मेरी मुट्ठी में
तुम्हारा कुर्ब हो तो मुश्किलें काफ़ूर हो जाएँ
ये अन्धे और काले रास्ते पुर-नूर हो जाएँ
तुम्हारे गेसुओं के छाँव मिल जाए तो
सूरज से उलझना बात ही क्या है
उठा लो अपना साया तो मेरी औक़ात ही क्या है
मुझे मालूम है इतना के दामें-ज़िन्दगी पोशीदा है इन चार क़दमों में
बहुत सी राहतें मुज्मिर है इन दुश्वार रस्तों में
मेरे बारे न कुछ सोचो तुम अपनी बात बतलाओ
कहो तो चलते रहते हैं कहो तो लौट जाते हैं
कहो तो लौट जातें हैं...