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क़िन्दील-ए-मह-ओ-महर का अफ़्लाक पे होना / सरवत हुसैन

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क़िन्दील-ए-मह-ओ-महर का अफ़्लाक पे होना
कुछ इस से ज़ियादा है मिरा ख़ाक पे होना

हर सुब्ह निकलना किसी दीवार-ए-तरब से
हर शाम किसी मंज़िल-ए-ग़मनाक पे होना

या एक सितारे का गुज़रना किसी दर से
या एक प्याले का किसी चाक पे होना

लौ देती है तस्वीर निहाँ-ख़ाना-ए-दिल में
लाज़िम नहीं इस फूल का पोशाक पे होना

ले आएगा इक रोज़ गुल-ओ-बर्ग भी ‘सरवत’
बाराँ का मुसलसल ख़स-ओ-ख़ाशाक पे होना