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काँव...काँव / रमेश तैलंग

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भोर से जगाने लगे काँव...काँव!
काँव...काँव गाने लगे काँव...काँव!

काले हैं, कलूटे हैं ये
रंग में न गोरे,
पर हैं ये अपने ही-
गाँव पले छोरे,
चिल्लपों मचाने लगे काँव...काँव।
काँव...काँव गाने लगे काँव...काँव!

वैसे तो है पेड़ों पर ही
इनका बसेरा,
बिजली के तारों पर हैं
डाले अभी डेरा,
चोंच, लो, उड़ाने लगे काँव...काँव।
काँव...काँव गाने लगे काँव...काँव!

सुनते हैं कोयलिया के
हैं ये सगे भाई,
पर न सुरीली बोली
इन्हें मिल पाई,
अंट-शंट खाने लगे काँव...काँव!
काँव...काँव गाने लगे काँव...काँव!