भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काटा म जब काटा चुभाबे / रमेशकुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:14, 6 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेशकुमार सिंह चौहान |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(यह रचना आल्हा छंद में है।)
काटा म जब काटा चुभाबे, तभे निकलथे काटा पांव।
कटे ल अऊ काटे ल परथे, त जल्दी भरते कटे घांव।।
लोहा ह लोहा ला काटथे, तब बनथे लोहा औजार।
दुख दुख ला काटही मनखे, ऐखर बर तै रह तइयार।।
जहर काटे बर दे ल परथे, अऊ जहर के थोकिन डोज।
गम भुलाय ल पिये ल परथे, गम के पियाला रोज रोज।।
प्रसव पिरा ला जेन ह सहिथे, तीनो लोक ल जाथे जीत।
धरती स्वर्ग ले बड़े बनके, बन जाथे महतारी मीत।।
दरद मा दरद नई होय रे, दरद के होथे अपन भाव।
दरद सहे म एक मजा होथे, जब दरद म घला होय चाव।।