भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कान पाथि अपनहु अकानिऔ / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:13, 8 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फेर विधान सभाक चुनावी गरमागरमी आबि रहल अछि
इस्कुलिया चटियासब पुनि प्रोत्साहन भत्ता पाबि रहल अछि।
खत्ता-खत्ती भेल सड़क पर सब तरि चेफड़ी सटा रहल अछि,
पक्का होइछै काज ताहि पर तेँ अलकतरो चढा रहल अछि॥
सामाजिक न्यायेक नामपर फेर ठकायत सुधुआ जनता,
जे अलकतरा पचा सकथि पुनि सैह लोक सब मन्त्री बनता।
चारा सैह चिबौलनि जनिकर काजक भेल न गोँतो गोबर,
वर्षे वर्षे मुदा बनौलनि से सब टाका ठामहि दोबड़॥
मुँहमे मधु, जेबीमे जहरक पुड़िया लेने घूमल करता,
बनल विनीत, सकल मतदाता-चरण-धुलि पुनि चूमल करता।
भोगल सुख सब सुमिरि सुमिरि अगिला सुख लै सब नाक रगड़ता
भरि चुनाव दुर्मद नेतो सब-जोँक-जकाँ भरि बीत नमरता॥
अपना घरमे जगह न बचलनि, सासुरमे किछु घर छनि खाली,
अपने जँ भीतर चल जयता तँ बाहर रहथिन घरवाली।
बीतल दशक बिहारक अनुपम होइत रहल घपलेपर घपला,
ई अन्दाज लगा न सकै छी ककरासँ आगाँ के टपला॥
हाकिम? हा किम्! एतय किमपि नही, जे होयत से उपरे जाकऽ,
तावत जनिका जते सुतरतनि खा जयता सब उला-पका कऽ।
फेर उलौता, फेर पकौता, रहल लोक यदि नहि सतर्कतँ,
कुम्भीपाक बिहार मध्यमे बचल रहत किछुओ न फर्कतँ॥
रामक संग रावणक नामो आबि जाइ छै सभक ध्यानमे,
कृष्णक संगहि कंसक चर्चा कयल गेल अछि सब पुरानमे।
भनेँ सुकमेँ आ कि कुकर्में नाम लोक लेबे करैत छै,
एकक जयजयकार, गारि पुनि दोसरकेँ देबे करैत छै॥
पुनि गरीबकेँ ठकबा लै मन मोहक नारा गढ़ल जा रहल,
कने मने आशा जे जनमत लोकतन्त्र दिस बढ़ल जा रहल।
सुच्चा लोकक सूक्ष्म दृष्टि पर लुच्चा-लम्पट चढ़ल जा रहल,
कानपाथि अपनहु अकानिऔ कतहु मर्सिया पढ़ल जा रहल।