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कितना मीठा है / रामगोपाल 'रुद्र'

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कितना मीठा है यह वंचन!

अपनों में मैं जब रहता हूँ,
रहता है उल्लास उछलता;
अपना ही अभिनय अपने को
तब कैसे-कैसे है छलता!
पचना था जिसको निस्तल में,
फेनों में छलका पड़ता है!
दाहशेष जीवनोच्छ्‍वास ही
घनीभूत होकर झड़ता है;
इसी तरह क्या चला करेगा,
मुझसे ही मुझमें यह प्रहसन?