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किसी की शक़्ल से सीरत पता नहीं चलती / सुभाष पाठक 'ज़िया'

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किसी की शक्ल से सीरत पता नहीं चलती
कि पानी देख के लज़्ज़त पता नहीं चलती

ख़ुदा का शुक्र है कमरे में आइना भी है
नहीं तो अपनी ही हालत पता नहीं चलती

छलकते अश्क सभी को दिखाई देते हैं
किसी को ख़्वाब की हिजरत पता नहीं चलती

ऐ ज़िन्दगी तुझे क्या क्या न सोचता मैं भी
मुझे जो तेरी हक़ीक़त पता नहीं चलती

तमाम रंग हो आँखों में भर लिए इक साथ
सो अब किसी की भी रंगत पता नहीं चलती

दिलो दिमाग़ बराबर ही साथ रखते हो
'ज़िया' तुम्हारी तो सुहबत पता नहीं चलती