"कृष्ण जन्म / श्वेता राय" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्वेता राय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGee...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatGeet}} | {{KKCatGeet}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | युग युगों में एक युग था, कह रहे द्वापर जिसे। | |
− | + | इक नगर उस काल में था,सब कहें मथुरा उसे॥ | |
+ | दो नगर की है कथा ये, कह रही संसार से। | ||
+ | सुन जिसे हो धन्य सारे, लीजिये गुन प्यार से॥ | ||
− | + | शूरवंशी भूप थे इक, पुत्र उनका कंस था। | |
− | + | कर्म ऐसे थे लगे कि, पाप का वो अंश था॥ | |
− | + | छीन कर गद्दी पिता की, डाल कारा में दिया। | |
− | + | न्याय का दीपक बुझा कर, घोर अपयश था लिया॥ | |
− | + | इक बहन उसकी दुलारी, प्राण से प्यारी उसे। | |
− | + | देवकी था नाम जिसका, मानता हिय से जिसे॥ | |
+ | व्याह कर वसुदेव जिसको, द्वारिका लेकर चले। | ||
+ | हाय नियती का लिखा पर, टालने से कब टले॥ | ||
− | + | देवकी दुल्हन बनी थी, साथ में वसुदेव थे। | |
− | + | सारथि बन कंस बैठा, कब कहाँ कुछ भेव थे॥ | |
− | + | देव वाणी तब हुई कि मूर्ख! सुन तू रुक जरा। | |
− | + | डोलता जिसको सुने नभ, डोलती सुन कर धरा॥ | |
− | + | आठवां सुत देवकी का, काल बनकर आ रहा। | |
− | + | रूप धरकर वो अनूठा, मृत्यु तेरी ला रहा॥ | |
+ | काल की ये बात सुनकर, कंस व्याकुल हो गया। | ||
+ | मार दूँ वसुदेव को ही, धैर्य उसका खो गया॥ | ||
− | + | देवकी कर जोड़ कहती, तात! ऐसा मत करो। | |
− | + | प्राण का तुम दान देकर, आस जीवन की भरो॥ | |
− | + | पुत्र से है भय तुम्हें तो, जन्मते लेना तुम्हीं। | |
− | + | आठवां सुत प्राप्त कर के, मुक्ति भी देना तुम्हीं॥ | |
− | + | डाल कारा में बहिन को, कर दिया पहरा कड़ा। | |
− | + | मूर्ख पापी चूर मद में, भाग्य से लड़ने खड़ा॥ | |
+ | रोक पाया है भला कब, चाल कोई काल की। | ||
+ | चतुर्दिश में गूँजती है, मृदंग जिसके ताल की॥ | ||
− | + | दिन महीने बरस बीते, देवकी रोती रही। | |
− | + | कर्म को बस कोसती औ, सुत सभी खोती रही॥ | |
− | + | आठवाँ सुत गर्भ आया, मुख मलिन उसका पड़ा। | |
− | + | बोलती वसुदेव से वो, भाग्य क्यों ऐसा लड़ा॥ | |
− | + | मात कैसी हूँ प्रिये मैं, कर कहाँ कुछ पा रही। | |
− | + | तात को दे पुत्र अपने, पीर सहती जा रही॥ | |
+ | कब सुनेंगें प्रभु हमारे, कब मिलेगा न्याय भी। | ||
+ | कब हरेंगें कष्ट सारा, बढ़ रहा अन्याय भी॥ | ||
+ | |||
+ | देवकी सुन धैर्य रख अब, दिख रहा अब काल है। | ||
+ | आ रहा जो गर्भ तेरे, गति लिये विकराल है॥ | ||
+ | कष्ट सारे दूर होंगें, अब हमारे लाल से। | ||
+ | दुष्ट का भी अंत होगा, सुन सुदर्शन चाल से॥ | ||
+ | |||
+ | अश्रु नैनो में समेटे, देवकी सोने चली। | ||
+ | हाय! जीवन की घड़ी ये, कब लगे उसको भली॥ | ||
+ | कब दिखेगा मुक्त सूरज, ये हवा औ चंद अब। | ||
+ | कब बढ़ेगी गति समय की, हो गयी जो मंद अब॥ | ||
+ | |||
+ | सिसकते दोनों पड़े थे, हार कर निज भाग्य से। | ||
+ | हो प्रगट अब कष्ट हर लो,कह रहे आराध्य से॥ | ||
+ | इक अलौकिक दिव्य मानव, आ खड़ा सम्मुख हुआ। | ||
+ | तेज ऐसा था अनोखा, देख मन को सुख हुआ॥ | ||
+ | |||
+ | चतुर्भुज था रूप जिनका, लग रहे भगवान थे। | ||
+ | देवकी वसुदेव दोनों,हो उठे हैरान थे॥ | ||
+ | पाँव पर हैं गिर पड़े वो, बोलते प्रभु पीर सुन। | ||
+ | है हृदय में कष्ट भारी, रख न पायें धीर सुन॥ | ||
+ | |||
+ | बोलते प्रभु आ रहा माँ!, गर्भ में बन लाल मैं। | ||
+ | धर्म की स्थापना को, बन रहा हूँ काल मैं॥ | ||
+ | भाद्रपद की अष्टमी को, जन्म मेरा हो रहा। | ||
+ | इस तिथी से कंस का है, भाग्य जग में सो रहा॥ | ||
+ | |||
+ | इस दिवस को गाँव गोकुल, हर्ष छायेगा सुनो। | ||
+ | नन्द के घर जन्म लेगी, योगिनी माया सुनो॥ | ||
+ | पुत्र अपना रख वहां पर, साथ लाना तुम उसे। | ||
+ | कंस के निज हाथ में फिर, सौंप देना है जिसे॥ | ||
+ | |||
+ | आ गया दिन वो सुहावन, देवकी बेहाल सी। | ||
+ | सह रही थी पीर भारी, हो रही है निहाल भी॥ | ||
+ | पुण्य तिथि थी रोहिणी की, थी अँधेरी रात भी। | ||
+ | गरजती थीं सब दिशायें, हो रही बरसात भी॥ | ||
+ | |||
+ | वेग युमना का बढ़ा था, सूझता कर को न कर। | ||
+ | अवतरित होते तभी प्रभु, बाल का है रूप धर॥ | ||
+ | खुल गये फिर द्वार कारा,टूटते सब बंध भी। | ||
+ | आह! नियती गढ़ रही थी, अब नवल संबंध भी॥ | ||
+ | |||
+ | सूप में रख पुत्र को निज, वसुदेव बढ़ते जा रहे। | ||
+ | देखकर विकराल यमुना,कुछ समझ कब पा रहे॥ | ||
+ | पार कर जाऊँ इसे मैं, राह पर दिखती नही। | ||
+ | भाग्य से विपदा हमारे, हाय! क्यों मिटती नही ? | ||
+ | |||
+ | बाल भगवन पाँव से फिर, छू दिए सरि धार को। | ||
+ | वेग यमुना का हुआ कम, बस नमन प्रभु प्यार को॥ | ||
+ | नन्द के घर पहुंच कर वो, पुत्र अपना रख दिये। | ||
+ | लौटते मथुरा को' वापस, नंद पुत्री को लिए॥ | ||
+ | |||
+ | कंस को जब ज्ञात होता, देवकी पुत्री जनी। | ||
+ | आ गया लेने उसे वो,भाग्य का समझे धनी॥ | ||
+ | मार देता हूँ इसे मैं, काल मेरी है यही। | ||
+ | छूट कर माया उडी औ, बोलती वो भी वही। | ||
+ | |||
+ | सुन रे मूरख! इस धरा पर, पाप तूने है किया। | ||
+ | आ गया है काल तेरा, जनम उसने ले लिया॥ | ||
+ | मार सकता है उसे यदि, मार कर तू देख तो। | ||
+ | देख सकता है यदि तो, देख नियती रेख को॥ | ||
+ | |||
+ | हो गई अदृश्य कन्या, कंस पागल हो गया। | ||
+ | क्या करे क्या ना करे अब, धैर्य उसका खो गया॥ | ||
+ | देवकी वसुदेव दोनों, बंद अब यूँ ही रहो। | ||
+ | काल को जब तक न मारूँ, दर्द सारे तुम सहो॥ | ||
+ | |||
+ | ये कथा अब पूर्ण होती, कृष्ण के अवतार की। | ||
+ | सुन जिसे सब धन्य होते, है अमिट संसार की॥ | ||
+ | धर्म के प्रसार की... | ||
+ | प्रेम के अभिसार की.. | ||
+ | |||
+ | यूँ कथा है पूर्ण होती, प्यार ही बस प्यार की.. | ||
</poem> | </poem> |
11:38, 2 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण
युग युगों में एक युग था, कह रहे द्वापर जिसे।
इक नगर उस काल में था,सब कहें मथुरा उसे॥
दो नगर की है कथा ये, कह रही संसार से।
सुन जिसे हो धन्य सारे, लीजिये गुन प्यार से॥
शूरवंशी भूप थे इक, पुत्र उनका कंस था।
कर्म ऐसे थे लगे कि, पाप का वो अंश था॥
छीन कर गद्दी पिता की, डाल कारा में दिया।
न्याय का दीपक बुझा कर, घोर अपयश था लिया॥
इक बहन उसकी दुलारी, प्राण से प्यारी उसे।
देवकी था नाम जिसका, मानता हिय से जिसे॥
व्याह कर वसुदेव जिसको, द्वारिका लेकर चले।
हाय नियती का लिखा पर, टालने से कब टले॥
देवकी दुल्हन बनी थी, साथ में वसुदेव थे।
सारथि बन कंस बैठा, कब कहाँ कुछ भेव थे॥
देव वाणी तब हुई कि मूर्ख! सुन तू रुक जरा।
डोलता जिसको सुने नभ, डोलती सुन कर धरा॥
आठवां सुत देवकी का, काल बनकर आ रहा।
रूप धरकर वो अनूठा, मृत्यु तेरी ला रहा॥
काल की ये बात सुनकर, कंस व्याकुल हो गया।
मार दूँ वसुदेव को ही, धैर्य उसका खो गया॥
देवकी कर जोड़ कहती, तात! ऐसा मत करो।
प्राण का तुम दान देकर, आस जीवन की भरो॥
पुत्र से है भय तुम्हें तो, जन्मते लेना तुम्हीं।
आठवां सुत प्राप्त कर के, मुक्ति भी देना तुम्हीं॥
डाल कारा में बहिन को, कर दिया पहरा कड़ा।
मूर्ख पापी चूर मद में, भाग्य से लड़ने खड़ा॥
रोक पाया है भला कब, चाल कोई काल की।
चतुर्दिश में गूँजती है, मृदंग जिसके ताल की॥
दिन महीने बरस बीते, देवकी रोती रही।
कर्म को बस कोसती औ, सुत सभी खोती रही॥
आठवाँ सुत गर्भ आया, मुख मलिन उसका पड़ा।
बोलती वसुदेव से वो, भाग्य क्यों ऐसा लड़ा॥
मात कैसी हूँ प्रिये मैं, कर कहाँ कुछ पा रही।
तात को दे पुत्र अपने, पीर सहती जा रही॥
कब सुनेंगें प्रभु हमारे, कब मिलेगा न्याय भी।
कब हरेंगें कष्ट सारा, बढ़ रहा अन्याय भी॥
देवकी सुन धैर्य रख अब, दिख रहा अब काल है।
आ रहा जो गर्भ तेरे, गति लिये विकराल है॥
कष्ट सारे दूर होंगें, अब हमारे लाल से।
दुष्ट का भी अंत होगा, सुन सुदर्शन चाल से॥
अश्रु नैनो में समेटे, देवकी सोने चली।
हाय! जीवन की घड़ी ये, कब लगे उसको भली॥
कब दिखेगा मुक्त सूरज, ये हवा औ चंद अब।
कब बढ़ेगी गति समय की, हो गयी जो मंद अब॥
सिसकते दोनों पड़े थे, हार कर निज भाग्य से।
हो प्रगट अब कष्ट हर लो,कह रहे आराध्य से॥
इक अलौकिक दिव्य मानव, आ खड़ा सम्मुख हुआ।
तेज ऐसा था अनोखा, देख मन को सुख हुआ॥
चतुर्भुज था रूप जिनका, लग रहे भगवान थे।
देवकी वसुदेव दोनों,हो उठे हैरान थे॥
पाँव पर हैं गिर पड़े वो, बोलते प्रभु पीर सुन।
है हृदय में कष्ट भारी, रख न पायें धीर सुन॥
बोलते प्रभु आ रहा माँ!, गर्भ में बन लाल मैं।
धर्म की स्थापना को, बन रहा हूँ काल मैं॥
भाद्रपद की अष्टमी को, जन्म मेरा हो रहा।
इस तिथी से कंस का है, भाग्य जग में सो रहा॥
इस दिवस को गाँव गोकुल, हर्ष छायेगा सुनो।
नन्द के घर जन्म लेगी, योगिनी माया सुनो॥
पुत्र अपना रख वहां पर, साथ लाना तुम उसे।
कंस के निज हाथ में फिर, सौंप देना है जिसे॥
आ गया दिन वो सुहावन, देवकी बेहाल सी।
सह रही थी पीर भारी, हो रही है निहाल भी॥
पुण्य तिथि थी रोहिणी की, थी अँधेरी रात भी।
गरजती थीं सब दिशायें, हो रही बरसात भी॥
वेग युमना का बढ़ा था, सूझता कर को न कर।
अवतरित होते तभी प्रभु, बाल का है रूप धर॥
खुल गये फिर द्वार कारा,टूटते सब बंध भी।
आह! नियती गढ़ रही थी, अब नवल संबंध भी॥
सूप में रख पुत्र को निज, वसुदेव बढ़ते जा रहे।
देखकर विकराल यमुना,कुछ समझ कब पा रहे॥
पार कर जाऊँ इसे मैं, राह पर दिखती नही।
भाग्य से विपदा हमारे, हाय! क्यों मिटती नही ?
बाल भगवन पाँव से फिर, छू दिए सरि धार को।
वेग यमुना का हुआ कम, बस नमन प्रभु प्यार को॥
नन्द के घर पहुंच कर वो, पुत्र अपना रख दिये।
लौटते मथुरा को' वापस, नंद पुत्री को लिए॥
कंस को जब ज्ञात होता, देवकी पुत्री जनी।
आ गया लेने उसे वो,भाग्य का समझे धनी॥
मार देता हूँ इसे मैं, काल मेरी है यही।
छूट कर माया उडी औ, बोलती वो भी वही।
सुन रे मूरख! इस धरा पर, पाप तूने है किया।
आ गया है काल तेरा, जनम उसने ले लिया॥
मार सकता है उसे यदि, मार कर तू देख तो।
देख सकता है यदि तो, देख नियती रेख को॥
हो गई अदृश्य कन्या, कंस पागल हो गया।
क्या करे क्या ना करे अब, धैर्य उसका खो गया॥
देवकी वसुदेव दोनों, बंद अब यूँ ही रहो।
काल को जब तक न मारूँ, दर्द सारे तुम सहो॥
ये कथा अब पूर्ण होती, कृष्ण के अवतार की।
सुन जिसे सब धन्य होते, है अमिट संसार की॥
धर्म के प्रसार की...
प्रेम के अभिसार की..
यूँ कथा है पूर्ण होती, प्यार ही बस प्यार की..