भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"केरा कै पात मोरा मन / हरिश्चंद्र पांडेय 'सरल'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिश्चंद्र पांडेय 'सरल' |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
<poem>
 
<poem>
 
केरा कै पात मोरा मन, बैरी कै काँट न उगाओ।
 
केरा कै पात मोरा मन, बैरी कै काँट न उगाओ।
 
 
अबहीं पियासे नयन, नयनन कै पलक न झपाओ॥
 
अबहीं पियासे नयन, नयनन कै पलक न झपाओ॥
  
 
आह भरैं कहि जायँ बतिया सारी,
 
आह भरैं कहि जायँ बतिया सारी,
 
 
भाठी जराय देय लोहेउ कै आरी,
 
भाठी जराय देय लोहेउ कै आरी,
 
 
यनकै अनोखी अगिन, दुखिया कै आह न जगाओ।
 
यनकै अनोखी अगिन, दुखिया कै आह न जगाओ।
  
 
मरुथल जिनिगिया है रेत निसानी,
 
मरुथल जिनिगिया है रेत निसानी,
 
 
बाढ़ै पियसिया तौ झलकै जस पानी,
 
बाढ़ै पियसिया तौ झलकै जस पानी,
 
 
छले जायँ भोले हिरन, कंचन घट बिख न भराओ।
 
छले जायँ भोले हिरन, कंचन घट बिख न भराओ।
  
 
दरद हमार मोरे जियरा कै साथी,
 
दरद हमार मोरे जियरा कै साथी,
 
 
जरि गवा तेल मुला बरी नहीं बाती,
 
जरि गवा तेल मुला बरी नहीं बाती,
 
 
थकि चली साँस कै चलन, जोति गये दीप न जराओ॥
 
थकि चली साँस कै चलन, जोति गये दीप न जराओ॥
 
</poem>
 
</poem>

11:26, 28 जुलाई 2014 के समय का अवतरण

केरा कै पात मोरा मन, बैरी कै काँट न उगाओ।
अबहीं पियासे नयन, नयनन कै पलक न झपाओ॥

आह भरैं कहि जायँ बतिया सारी,
भाठी जराय देय लोहेउ कै आरी,
यनकै अनोखी अगिन, दुखिया कै आह न जगाओ।

मरुथल जिनिगिया है रेत निसानी,
बाढ़ै पियसिया तौ झलकै जस पानी,
छले जायँ भोले हिरन, कंचन घट बिख न भराओ।

दरद हमार मोरे जियरा कै साथी,
जरि गवा तेल मुला बरी नहीं बाती,
थकि चली साँस कै चलन, जोति गये दीप न जराओ॥