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{{KKRachna
|रचनाकार=शकील बँदायूनीबदायूँनी|संग्रह=}} {{KKCatGhazal}}<poem> कोई आरज़ू नहीं है, कोई मु़द्दा नहीं है,तेरा ग़म रहे सलामत, मेरे दिल में क्या नहीं है।
कोई आरज़ू नहीं हैकहां जाम-ए-ग़म की तल्ख़ी, कोई मु़द्दा नहीं हैकहाँ ज़िन्दगी का रोना,<br>तेरा ग़म रहे सलामतमुझे वो दवा मिली है, मेरे दिल में क्या जो निरी दवा नहीं है ।<br>है।
कहां जाम-ए-ग़म की तल्ख़ीतू बचाए लाख दामन, कहां ज़िन्दगी का रोनामेरा फिर भी है ये दावा,<br>मुझे वो दवा मिली हैतेरे दिल में मैं ही मैं हूँ, जो निरी दवा कोई दूसरा नहीं है ।<br>है।
तू बचाए लाख दामनतुम्हें कह दिया सितमगर, मेरा फिर भी है ये दावाकुसूर था ज़बां का,<br>तेरे दिल में मैं ही मैं हंूमुझे तुम मुआफ़ कर दो, कोई दूसरा मेरा दिल बुरा नहीं है ।<br>है।
तुम्हें कह दिया सितमगरमुझे दोस्त कहने वाले, ज़रा दोस्ती निभा ले,ये कुसूर था ज़बां मुतालबा<ref>माँग</ref> है हक़ का,कोई इल्तिजा<brref>मुझे तुम मुआफ़ कर दो, मेरा दिल बुरा नहीं है ।विनती<br/ref>नहीं है।
मुझे दोस्त कहने वालेये उदास-उदास चेहरे, ज़रा दोस्ती निभा लेये हसीं-हसीं तबस्सुम,<br>ये मताल्बा है हक़ कातेरी अंजुमन में शायद, कोई इल्तिजा आईना नहीं है ।<br>है।
ये उदास-उदास चेहरे, ये हसीं-हसीं तबस्सुम,<br>तेरी अंजुमन में शायद, कोई आईना नहीं है ।<br> मेरी आंख ने तुझे भी, बाख़ुदा ‘शकील‘ 'शकील' पाया,<br>मैं समझ रहा था मुझसा, कोई दूसरा नहीं है ।<br>है। तल्ख़ी: कड़वाहट,<br/poem>मताल्बा: सच्चाई,<br>इल्तिजा: मुस्कान ।<br>{{KKMeaning}}
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