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"क्यों न बोलें ये व्यथाएँ / राहुल शिवाय" के अवतरणों में अंतर

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हे कलयुग के राम
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झूल जाओ प्राण तज दो
सिया की अग्निपरीक्षा
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क्यों न बोलें ये व्यथाएँ
कब तक लोगे
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नारी का सम्मान यही है
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जो हमेशा ही सहेजा
देह है नारी
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नग्न होकर वह पड़ा था
घुटती रहे महल में तो सति
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गिद्ध नर के सामने बस
है बेचारी
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मान माँसल चीथड़ा था
लछमन रेखा मर्यादा की
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पार नहीं की
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पर वह आँगन पार गई
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तो भाग्य भाल पर
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क्या लिक्खोगे
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देख न पाए करती रही जो
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देह पर ज्यों चल रही हैं
हृदय-समर्पण
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नाग-सी अब भी भुजाएँ
न्योछावर कर डाला उसने
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तन, मन, जीवन
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माली का है मूल्य चुकाया
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याकि पुष्प का
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एक बार अंतर में
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झांक स्वयं से पूछो
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तब समझोगे
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बहुत सरल है दुनिया में
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था यही अपराध तन का
संबंध बनाना
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वह किसी को भा गया था
नहीं सरल पर दुनिया में
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खेलने की चीज थी जो
संबंध निभाना
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खेलकर छोड़ा गया था
अगर परीक्षा ही लेनी है
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तुम भी दे दो
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क्या वनवास सिया को देकर
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अग्निपरीक्षा
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तुम भी दोगे
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रचनाकाल-14 फरवरी 2018
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है हुआ अभियोग तन पर
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औ घृणा करती दिशाएँ
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पाँडवी आक्रोश भी जब
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व्यस्त है सबकुछ भुलाकर
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नृप बना धृतराष्ट्र सम जब
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है सभा चुप, सिर झुकाकर
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हस्तिनापुर लिख रहा है
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कृष्ण बिन जब विवशताएँ
 
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17:51, 18 फ़रवरी 2020 के समय का अवतरण

झूल जाओ प्राण तज दो
क्यों न बोलें ये व्यथाएँ

जो हमेशा ही सहेजा
नग्न होकर वह पड़ा था
गिद्ध नर के सामने बस
मान माँसल चीथड़ा था

देह पर ज्यों चल रही हैं
नाग-सी अब भी भुजाएँ

था यही अपराध तन का
वह किसी को भा गया था
खेलने की चीज थी जो
खेलकर छोड़ा गया था

है हुआ अभियोग तन पर
औ घृणा करती दिशाएँ

पाँडवी आक्रोश भी जब
व्यस्त है सबकुछ भुलाकर
नृप बना धृतराष्ट्र सम जब
है सभा चुप, सिर झुकाकर

हस्तिनापुर लिख रहा है
कृष्ण बिन जब विवशताएँ