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क्यों न मेरा यह हृदय मूक-सा रहने दिया / हिमांशु पाण्डेय

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क्यों न मेरा यह हृदय
मूक सा रहने दिया ?

क्या करुँ उस अग्नि का
निशि-दिन जले जो इस हृदय में
क्या करुँ उस व्यग्रता का
जा छिपी जो उर-निलय में
क्यों असीमित यह प्रणय
बहु-रूप सा रहने दिया ?


तारकों की तूलिका से
रंगा है, वो व्यथा का आकाश है
घन-तिमिर की लहर में
आंसुओं के कमल का आवास है
क्यों न स्मृति-निलय मेरा
शून्य-सा रहने दिया ?

क्यों न मेरा यह हृदय
मूक-सा रहने दिया ?