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धरती को धन से भरने वालो !
बोलो कब तक त्रास सहोगे? कटु वाणी उपहास सहोगे?
तुम अगणित, भूखे, अधनंगे,
अपना घर, फिर भी भिखमंगे;
अन्न-वस्त्र को हाथ बढ़ाते तुम निरस्त्र गोली ही पाते —
इतने पर भी नहीं शत्रु को मिलता किंचित तोष ! करो-करो, नूतन रण का उद्घोष ! यह पवित्र आक्रोश !
बढ़ो ध्वजा अपनी फहरापफहराओ
रणभेरी का नाद गुँजाओ
कोटि-कोटि ओ तुम ! बढ़ आओ, रण कौशल अपना दिखलाओ
दृढ़-प्रतिज्ञ वीरो, मतवालो;
शत्रु-शिविर पर घेरा डालो !
करो व्यूह की अद्‍भुत्त रचना, विजय नीति की दृढ़ संरचना,
कुटिल शत्रु की नियति मृत्यु है, नहीं तुम्हारा दोष ! करो-करो, नूतन रण का उद्घोष ! यह पवित्र आक्रोश !
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