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"ख़ुद कलेजा पकड़ने लगी बिजलियाँ / यश मालवीय" के अवतरणों में अंतर

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एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
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ख़ुद कलेजा पकड़ने लगी बिजलियाँ
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
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चोंच में बाज़ की शान्ति की टहनियाँ
गीत जो अब तक नहीं गाया
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फिर धमाकों में बजने लगी खिड़कियाँ
हम उसे समझें सुनें आओ
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:::रोशनी तो हुई
 
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:::पर धुआँ हो गई
:::हैं रिहर्सल में हमारी आत्माएँ
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:::जिससे लपटें उठीं,
:::और मंचन की नहीं तारीख़ तय है
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:::वो कुआँ हो गईं
:::बोलने के नाम पर ज़्यादा कहें क्या
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ख़ुद कलेजा पकड़ने लगीं बिजलियाँ
:::घुट रहे से शोर की ही चीख़ तय है,
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:::लोग सोकर उठे
 
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:::और नारे उठे
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
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:::कुछ लहर में नहीं
उँगलियों पर ख़ून की बूँदें सजाएँ
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:::सब किनारे उठे
फूल काँटों से चुनें आओ
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तन खुजाने लगीं रेत में कश्तियाँ
 
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:::वक़्त के होंठ
:::नीच ट्रेजडी का कथानक भूल जाएँ
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:::कुछ और नीले हुए
:::खुली खिड़की से निहारें आसमाँ
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:::लाल आँखें हुईं
:::पाँव से ही ये ज़मी नत्थी रहे
+
:::दृश्य पीले हुए
:::और हम फिर-फिर पुकारें आसमाँ
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फिर ज़हर में धुलीं कुछ नई तल्ख़ियाँ
 
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:::जो हवा थी कभी
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
+
:::आँधियाँ बो गई
आ रहे कल पर ज़रा सोचें-विचारें
+
:::छप्परों-छप्परों
सिर रुई जैसा धुनें आओ
+
:::सिसकियाँ बो गई
 
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धूल पीने लगीं नीम की तख़्तियाँ
:::कुछ नहीं 'रेडिकल' रहा तो क्या हुआ
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:::बत्तखों जैसी सुबह अब भी सजे
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:::रात में भी जाग उठती हैं उम्मीदें
+
:::दस बजे, ग्यारह बजे, बारह बजे
+
 
+
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
+
है लबालब ताल आँखॊं का
+
गुनगुना पानी गुनें आओ
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19:21, 15 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

ख़ुद कलेजा पकड़ने लगी बिजलियाँ
चोंच में बाज़ की शान्ति की टहनियाँ
फिर धमाकों में बजने लगी खिड़कियाँ
रोशनी तो हुई
पर धुआँ हो गई
जिससे लपटें उठीं,
वो कुआँ हो गईं
ख़ुद कलेजा पकड़ने लगीं बिजलियाँ
लोग सोकर उठे
और नारे उठे
कुछ लहर में नहीं
सब किनारे उठे
तन खुजाने लगीं रेत में कश्तियाँ
वक़्त के होंठ
कुछ और नीले हुए
लाल आँखें हुईं
दृश्य पीले हुए
फिर ज़हर में धुलीं कुछ नई तल्ख़ियाँ
जो हवा थी कभी
आँधियाँ बो गई
छप्परों-छप्परों
सिसकियाँ बो गई
धूल पीने लगीं नीम की तख़्तियाँ