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ग़ाफ़िल कुछ और कर दिया शमयेमज़ार ने / सीमाब अकबराबादी
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ग़ाफ़िल कुछ और कर दिया शमये-मज़ार ने।
आया था मैं तो नशये-हस्ती उतारने॥
हँसता है क्या बुझी हुई शमये-हयात पर।
देखी है सुबह भी तो मेरी लालाज़ार ने॥