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"गाँव में रहना कोई चाहे नहीं / डी .एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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जंगली पौधे भी गमले ढूँढते
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सेठ की जाकर करेंगे चाकरी
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खेत में खटना कोई चाहे नहीं
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गाँव में रहते नकारा लोग हैं
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व्यंग्य यह सुनना कोई चाहे नहीं
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घर के बच्चे भी लगें मेहमान से
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गाँव है तो पेट को रोटी मिले
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गाँव  को वरना कोई चाहे नहीं
 
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15:13, 15 दिसम्बर 2022 के समय का अवतरण

गाँव में रहना कोई चाहे नहीं
धूप में जलना कोई चाहे नहीं

संगमरमर पर बिछा क़ालीन हो
धूल में चलना कोई चाहे नहीं

जंगली पौधे भी गमले ढूँढते
बाग़ में खिलना कोई चाहे नहीं

सेठ की जाकर करेंगे चाकरी
खेत में खटना कोई चाहे नहीं

गाँव में रहते नकारा लोग हैं
व्यंग्य यह सुनना कोई चाहे नहीं

घर के बच्चे भी लगें मेहमान से
चार दिन रुकना कोई चाहे नहीं

गाँव है तो पेट को रोटी मिले
गाँव को वरना कोई चाहे नहीं