गीत 29 / अठारहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
ब्रह्म भाव के ऊ अधिकारी
जिनकर अन्तःकरण शुद्ध छै, कारज मंगलकारी।
जे सात्विक भोजन के धारै, भक्ष-अभक्ष विचारै
जे इन्द्रिय के सकल भोग के, केचुल जकाँ उतारै
करै सदा एकान्त साधना, कारज जग हितकारी
ब्रह्म भाव के ऊ अधिकारी।
छै जलवायु पवित्र जहँकरोॅ, साधक वहाँ निवासै
भीड़-भाड़ से अलग-थलग बस ईश्वर में विश्वासै
जौने समझै भोग वस्तु के, सदा अमंगलकारी
ब्रह्म भाव के ऊ अधिकारी।
मन वाणी आरो शरीर के, जे पवित्र नित राखै
राग-द्वेष से परे रहै, अपशब्द कभी नै भाखै
राखै जे वैराग्य भाव, समदर्शी परहितकारी
ब्रह्म भाव के ऊ अधिकारी।
अहंकार के त्याग करै, देहाभिमान नै आनै
बल के रहते भी निबला पर, कभी भृकुटि नै तानै
धन-जन-विद्या के घमंड के राखै सदा बिसारी
ब्रह्म भाव के ऊ अधिकारी।
काम-क्रोध के करै त्याग जे, मन के वेग सम्हारै
सकल भोग साधन के त्यागै, समझी बोझ उतारै
त्यागै ममता मोह हमेशा, ध्यान योग व्रतधारी
ब्रह्म भाव के ऊ अधिकारी।
शान्त भाव से जे प्राणी नित परमेश्वर के ध्यावै
से साधक के परम पुरुष अपना कहि केॅ अपनावै
राखै जे ईश्वर समक्ष अपनोॅ अस्तित्व बिसरी
ब्रह्म भाव के ऊ अधिकारी।