भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीत 5 / आठवाँ अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:59, 18 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजेता मुद्गलपुरी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सब इन्द्रिय के रोकि अपन मन हृदय कमल पर धारोॅ
और अपन जीतल मन से तों प्राण शीश पर धारोॅ।
धरोॅ योग अपनोॅ दृढ़ मन से
अक्षर ब्रह्म उचारोॅ,
‘ओम’ शब्द के करि उच्चारण
निर्गुण ब्रह्म स्वीकारोॅ,
जे ऐसन करि तजै देह के, तहाँ मिलौं हम ठारोॅ।
दसो द्वार के बन्द रखै जे
सहजे विषय दुरावै,
हृदय कमल बारह दल वाला
तै पर ध्यान टिकावै,
इधर-उधर भटकैत मनोॅ के करि केॅ ध्यान सुधारोॅ।
निराकार निर्गुण अभेद के
भेद सिद्ध जन धारै,
पुनरजनम तजि, परम पुरुष के
दिव्यरूप पहचानै,
पावोॅ सहजे दिव्य पुरुष के, तन के बोझ उतारोॅ
सब इन्द्रिय के रोकि अपन मन हृदय कमल पर धारोॅ।