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गुठली आम की / रंजना जायसवाल

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घूरे की सूखी जमीन पर पड़ी
गुठली आम की
याद कर रही है अपना अतीत
जब वह पिता के कन्धे पर चढ़ी
पूरे कुनबे के साथ
मह-मह महक करती थी
मगर कभी आँधी
कभी बन्दर
कभी शैतान बच्चों के कारण
टूटता गया कुनबा
उसकी अनगिनत बहनें
बचपन में ही नष्ट हो गयीं
और अनगिनत जवानी में ही
काट-पीटकर
मिर्च-मसालों के साथ
मर्तबानों में बन्द कर दी गयीं
वह बची रह गयी
कुछ के साथ
पर कहाँ जी पायी पूरा जीवन
भुसौले में दबा-दबाकर
दवा के जोर पर
ज़बरन पैदा किया गया
उसमें रस
और फिर चूसकर उसका सत्व
फेंक दिया गया घूरे पर
निराश नहीं है
फिर भी गुठली
उसमें है सृजन की क्षमता
इन्तजार है उसे
बादलों का
फिर फूटेगा उसमें अंकुर
और वह वृक्ष बन जायेगी।