भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग्यारह / रागिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:59, 3 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पाँव पड़ूँ सबको कोई बांसुरी बजाना ना
सोई है अभी-अभी इसको जगाना ना

पलाको पर आ-आ कर नींद चली जाती है
बार-बार मूँद-मूँद कर आँख छली जाती है
मन के मीठे सपने अपने में उमड़ रहे
कौन सुनेगा मन की और मन की किससे कहें

राधा को आज भर कन्हैया रिझाना ना
जब-जब आती है याद मधुर-मधुर
गलने लगता है तन मधुर-विधुर
लूढक-लूढ़क-सा आँखों के बालों पर
पागल निरीहों-सा आँखों के बालों पर

ठहर-ठहर सोच रहे इनको समझना न

जितना समझता हूँ, यह उतना ढलता है
याद करूँ जितना मैं मन उतना गलता है
टेढ़ी-मेढ़ी लकीर गालों पर खिचती है
आँसू के, हाय! मेरी ठुड्ढी तक चलती है

बाँसुरी में गम भर कर गम को उकसाना ना
पाँव पड़ूँ सबको कोई बासुरी बजाना ना