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क्या नहीं आजकल। <br><br>
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थरथराते हुए, <br>
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क्या नहीं आजकल।<br><br>
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क्या नहीं आजकल।
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20:09, 9 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

दो शब्द चित्र

(एक)

बारिशों के पल
नया
जादू जगाते हैं।
   
तितलियाँ
लेकर उड़ीं-
संयम हवाओं में,
   
खिंच गए
सौ-सौ धनुष-
दृष्टि, दिशाओं में,
   
जुगनुओं से
याद के
खण्डहर सजाते हैं।
   
गंध बनकर
डोलती-
काया गुलाबों की,
पंक्तियाँ
जीवित हुई-
जैसे किताबों की,
   
गाछ-भी
यह देखकर
ताली बजाते हैं।
   
(दो)

रंग
खुशबू-घटा
क्या नहीं आजकल।
रैलियाँ
जुगनुओं की-
निकलने लगीं,
हर दिशा
वस्त्र अपने-
बदलने लगीं,
   
सूर
उलझी जटा
क्या नहीं आजकल।
   
द्वार तक हिम-हवा-
थरथराते हुए,
आ-गयी
गीत-गोविन्द-
गाते हुए,
   
छंद
धनुयी छटा
क्या नहीं आजकल।