भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घाणी फोड़ रही थी जोट न्यूं आपस में बतलाई / मंगतराम शास्त्री
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:08, 25 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मंगतराम शास्त्री }} {{KKCatHaryanaviRachna}} <poem> घ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
घाणी फोड़ रही थी जोट न्यूं आपस में बतलाई
हम रहां माट्टी संग माट्टी, म्हारी जड़ चिन्ता नै चाट्टी
पाट्टी पड़ी खेस की गोठ, दे म्हैं को राम दिखाई
म्हारे अणपढ़ रहग्ये बच्चे, और ढूंढ़ पड़े सैं कच्चे
सच्चे मोती मारैं लोट, जणूं रेत में चिड़िया न्हाई
हम देही तोड़ कमावां, पन्द्र्ही पै राशन ल्यावां
खावां रूखे सूखे रोट, ना मिलता दूध मलाई
सही मंगतराम कहै सै, म्हारे हिरदे डीक दहै सै
रहै सै सारी हाण कचोट, म्हारी देही रंज नै खाई
( प्रचलित तर्ज-होळी खेल रहे नन्दलाल...)