भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चन्द्र तुम मौन हो / अनुपमा त्रिपाठी

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:45, 4 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुपमा त्रिपाठी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
मैं विकारी ... तुम निर्विकार ...!!
निराकार मुझमे लेते हो आकार ,
रजनी के ललाट पर उज्ज्वल
यूं मिटाते हो हृदय कलुष ,
मैं आधेय तुम आधार ....!!
 
मेरे मन के एकाकी क्षणो को
 तुम ही तो भर रहे हो,
 
बताओ तो -
क्यूँ लगता है मुझे
 
मेरे हृदय के असंख्य अनुनाद,
वो अनहद नाद ,
सुन रहे हो
समझ रहे हो ...!!
तभी तो ..
भीगी हुई चाँदनी सरस बरस रही है
चन्द्र तुम मौन हो,
और ....मेरे निभृत क्षणों को
झर झर भर रहा है
अविदित मधुरता सरसाता हुआ,
बरसता हुआ अविरल,
शुभ्र ज्योत्सना सा
तुम्हारा हृदयामृत .....!!