भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चारों तरफ लहू का समंदर न देखिए / उपेन्द्र कुमार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उपेन्द्र कुमार |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <Poem> चारों तरफ ल…)
 
(कोई अंतर नहीं)

01:24, 1 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

चारों तरफ लहू का समंदर न देखिए
हिंसा ने कर दिया है जो मंजर न देखिए

बाहर की ये चमक ये दमक और कुछ नहीं
ये तो लिखा हुआ है कि अंदर न देखिए

ख़ुद को संभालना कोई मुश्किल नहीं यहाँ
चल ही दिए हैं आप तो मुड़कर न देखिए

जख़्मों पे फिर नमक ही छिड़कना है क्या ज़रूर
मिल कर बिछड़ रहे हैं तो हँसकर न देखिए

संभव नहीं है आपका रहना अगर यहाँ
लालच भरी नज़र से मेरा घर न देखिए

टकरा गई नज़र तो सँभल ही न पाओगे
इस शहर में दरीचों के अन्दर न देखिए