भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चिड़िया का होना ज़रूरी है / शैलजा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलजा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
<poem>
 
<poem>
  
 +
पेड़ पर फुदकती है चिड़िया
 +
पत्ते हिलते हैं, मुस्कुराते हैं
 +
चिड़िया उनमें भरती है चमकदार हरापन,
 +
डाली कुछ लचक कर समा लेती है
 +
चिड़िया की फुदकन अपनी शिराओं में,
 +
पेड़ खड़े हैं सदियों से,
 +
चिड़िया है क्षणिक
 +
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
 +
चिड़िया की गान पर गा उठता है पूरा जंगल,
 +
चिड़िया खींच लाती है सूरज की किरणों को
 +
और तान देती है पेड़ों के सिरों परों पर
 +
धँस जाती है उन घनी झाड़ियों में
 +
जो वंचित है सूरज की ममता से,
 +
चिड़िया उन सब तक लाती है जीवन का गान,
 +
जंगल है सदियों से
 +
चिड़िया है क्षणिक
 +
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
 +
ठीक वैसे,
 +
जैसे,
 +
धान के लिये ज़रूरी है
 +
कमर झुकाए,
 +
कीचड़ में हाथ-पाँव सानें
 +
पसीने और थकावट के बीच
 +
धान रोपती औरतों का फूटता गान,
 +
जैसे दुनिया की कैनवास पर
 +
दिखाई देने वाले बहुत से बदनुमा धब्बों के बीच
 +
खिलता किसी फूल का रंग,
 +
जैसे मनुष्य के दिमाग के
 +
तमाम जालों और कुतर्कों के बीच बची
 +
जीने की इच्छा,
 +
मुठ्ठी भर मनुष्यता,
 +
सदियों से चल रही है दुनिया
 +
क्षणिक है आदमी,
 +
पर आदमी का होना ज़रूरी है,
 +
हाँ, चिडिया का होना ज़रूरी है।
 +
-०-
  
 
</poem>
 
</poem>

05:52, 13 अगस्त 2018 के समय का अवतरण


पेड़ पर फुदकती है चिड़िया
पत्ते हिलते हैं, मुस्कुराते हैं
चिड़िया उनमें भरती है चमकदार हरापन,
डाली कुछ लचक कर समा लेती है
चिड़िया की फुदकन अपनी शिराओं में,
पेड़ खड़े हैं सदियों से,
चिड़िया है क्षणिक
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
चिड़िया की गान पर गा उठता है पूरा जंगल,
चिड़िया खींच लाती है सूरज की किरणों को
और तान देती है पेड़ों के सिरों परों पर
धँस जाती है उन घनी झाड़ियों में
जो वंचित है सूरज की ममता से,
चिड़िया उन सब तक लाती है जीवन का गान,
जंगल है सदियों से
चिड़िया है क्षणिक
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
ठीक वैसे,
जैसे,
धान के लिये ज़रूरी है
कमर झुकाए,
कीचड़ में हाथ-पाँव सानें
पसीने और थकावट के बीच
धान रोपती औरतों का फूटता गान,
जैसे दुनिया की कैनवास पर
दिखाई देने वाले बहुत से बदनुमा धब्बों के बीच
खिलता किसी फूल का रंग,
जैसे मनुष्य के दिमाग के
तमाम जालों और कुतर्कों के बीच बची
जीने की इच्छा,
मुठ्ठी भर मनुष्यता,
सदियों से चल रही है दुनिया
क्षणिक है आदमी,
पर आदमी का होना ज़रूरी है,
हाँ, चिडिया का होना ज़रूरी है।
-०-