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छंद 205 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

तन-बेदन देखि न कोऊ सकै, ‘द्विजदेव’ जू काहू कौं होस नहीं।
हम आइ, जनाइ, चलीं तुम सौं, ब्रज-बासिन कौ अब दोस नहीं॥
यह साँची कहैं, नहिँ काँची तऊ, तुम्हैं हाइ! कछू अपसोस नहीं।
करताई आइ सहाइ करै, न तौ वाके जिए कौ भरोस नहीं॥

भावार्थ: हे कृष्ण! उस विरहिणी के तन की व्यथा किसी पार्श्ववर्तिनी सखी से देखी नहीं जाती और जो देखती हैं उनकी सुध-बुध जाती रहती है, अतः मैं (किसी प्रकार आकर) आपसे सत्य-सत्य निवेदन करती हूँ, इसमें मिथ्या का लवलेश भी नहीं, परंतु हाय! आपको तो किंचित् मात्र भी शोक नहीं उत्पन्न होता (इससे यह ध्वनित हुआ कि हम सब पार्श्ववर्तिनी तो खिन्न होती हैं और आप प्रियतम पति होकर भी दुःखी नहीं होते।) अस्तु आपको यह विज्ञप्ति देकर मैं दोष से मुक्त होती हूँ कि यदि विधाता स्वतः सहायता करे तो करे, नहीं तो उसके जीवन की अब आशा नहीं रही।