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छंद 229 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

हिय तोष कहा है सरीर धरे तैं, सुदोष कहा अलि! देह गए।
बिधि आपने भाल लिखी जो कछू, अब तौ बनिहैं सोई बात ठए॥
‘द्विजदेव’ निहोरति नाँहक हीं, लखि किंसुक-जालन कोप लए।
बसिहै तिनके हिऐं क्यौं करुना, जे पलासन हीं तैं पलास भए॥

भावार्थ: हे सखी! ऐसे शरीर धारण करने से क्या सुख एवं उसके नाश कर देने से क्या दुःख हो सकता है; क्योंकि जो कुछ ब्रह्मा ने भाल पट्ट में लिखा है वह तो भुगतना ही पड़ेगा। अतः तू इन पलाश पुष्पों के कोमल किशलयों की क्यों शुश्रूषा करती है? क्योंकि जो पलासन (मांसाहारी) ही से पलाश हुए हैं उनको करुणा से क्या प्रयोजन है! तिसपर भी जो कोप ज्वलित है, यथा-‘मांसाहारी कुतो दया’ अर्थात् मांसाहारी जीवों की प्रकृति उग्र होती है।