भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"छहरि रही है कं, लहरि रही है कं / राय कृष्णदास" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राय कृष्णदास }} Category:पद <poem>छहरि रही है कं, लहरि रह...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:18, 7 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
छहरि रही है कं, लहरि रही है कं,
रपटि परै त्यों कं सरपट धावै है।
उझकै कं, त्यों कं झिझकि ठिठकि जात,
स्यामता बिलोकि रोरी-मूंठनि चलावै है॥
कौंलन जगाइ, नीके रंग में डुबाइ, भौंर-
भीर को गवाइ, कितो रस बरसावै है।
केसर की माठ भरे, कर पिचकारी धरे,
पूरब-सुबाला होरी भोर ही मचावै है॥