भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िन्दगी चादर एक फटी / जय चक्रवर्ती

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:42, 29 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जय चक्रवर्ती |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत संभाली फिर भी –
टुकड़े-टुकड़े रही बंटी
कहाँ –कहाँ पर सियेँ
ज़िन्दगी चादर एक फटी

आग पेट की ही
जीने को हम मजबूर हुए
आसमान में उड़ने वाले
सपने चूर हुए

अरमानों को कंधा देते
सारी उम्र कटी

नहीं रुचा परदेस
और घर भी न रहा अपना
अनुबंधों की गर्म-धूप में
नित्य पड़ा तपना

अग्नि–परीक्षाओं की सीमा
तिल-भर नहीं घटी

मिला दुखों का स्नेह
दूरियों ने की बड़ी दया
कभी प्यार का झोंका कोई
छूकर नहीं गया

रही फूलती –फलती
पीड़ाओं की पंचवटी