भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िन्दा हूँ इस तरह कि ग़म-ए-ज़िन्दगी नहीं / बेहज़ाद लखनवी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:50, 18 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बेहज़ाद लखनवी }} {{KKCatGhazal}} <poem> ज़िन्दा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िन्दा हूँ इस तरह कि ग़म-ए-ज़िन्दगी नहीं
जलता हुआ दिया हूँ मगर रोशनी नहीं

वो मुद्दतें हुईं हैं किसी से जुदा हुए
लेकिन ये दिल की आग अभी तक बुझी नहीं

आने को आ चुका था किनारा भी सामने
खुद उसके पास ही मेरी नैय्या गई नहीं

होंठों के पास आए हँसी, क्या मज़ाल है
दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं

ये चाँद, ये हवा, ये फ़िज़ा, सब हैं माद्मा
जो तू नहीं तो इन में कोई दिलकशी नहीं