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जाने किस ओर से आया है किधर जाता है / रंजना वर्मा
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जाने किस ओर से आता है किधर जाता है
काफ़िला जीस्त का तो यूँ ही गुज़र जाता है
कोई इस ओर न आयेगा है मालूम हमें
फिर भी आँखों में इंतज़ार ठहर जाता है
जानता ही नहीं रिश्तों की मसलहत है क्या
वो क्या जाने कि कहाँ किस पे कहर ढाता है
कैसी होती हैं दुआएँ कि जो बर आती हैं
मानने मन्नतें वो सब के ही दर जाता है
इस तरफ से बहार गुज़रे बरस बीत गये
सूखा मंज़र भी उसे सब्ज़ नज़र आता है
छीन ली वक्त ने जो वो तो मसर्रत थी मेरी
याद प्रदेश में तो अपना ही घर आता है
कोशिशें भूलने की लाख हम करें तुम को
याद पर मुझ को तो ग् आठो पहर आता है