भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:27, 19 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी }} {{KKCatGhazal}} <poem> ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी
ये छेड़ जो चलती है सो चलती ही रहेगी
ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
अपनी भी तबीअत है बहलती ही रहेगी
दिल रश्क-ए-अदू से है सिपंद-ए-सर-ए-आतिश
ये शम्अ तिरी बज़्म में जलती ही रहेगी
ग़म्ज़ा तिरा धोका यूँ ही देता ही रहेगा
तल्वार तिरे कूचे में चलती ही रहेगी
इक आन में वो कुछ हैं तो इक आन मे कुछ हैं
करवट मिरी तक़दीर बदलती ही रहेगी
अंदाज़ में शोख़ी में शरारत में हया में
वाँ एक न इक बात निकलती ही रहेगी
‘वहशत’ को रहा उन्स जो यूँ फ़न्न-ए-सुख़न से
ये शाख़-ए-हुनर फूलती-फलती ही रहेगी