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जिस तरफ देखो मचा कोहराम है / अजय अज्ञात
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जिस तरफ देखो मचा कुहराम है
हो रही क्यों आबरू नीलाम है
दर्दे-दिल‚ रुसवाईयाँ‚ तन्हाईयाँ
इश्क़ का होता यही अंजाम है
छा रही है रफ्ता-रफ्ता तीरगी
ढल रही अब ज़िंदगी की शाम है
मुफ़्लिसी‚ बेरोज़गारी‚ भुखमरी
हाक़िमों की लूट का परिणाम है
किसलिए दर पर खड़े हो देर से
आपको मुझ से भला क्या काम है
यूं पहेली मत बुझाओ बोल दो
बात कोई ख़ास है या आम है
देखिए तो किस तरह हर आदमी
ज़िंदगी से कर रहा संग्राम है
काम में मसरूफ है अज्ञात भी
एक पल को भी नहीं आराम है