भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीने का कोई हासिल न मिला आख़िर यह उम्र तमाम हुई / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:03, 10 जुलाई 2011 का अवतरण
जीने का कोई हासिल न मिला आख़िर यह उम्र तमाम हुई
फिर दिन निकला, फिर रात ढली, फिर सुबह हुई, फिर शाम हुई
फूलों से लदा था बाग़ जहाँ हम-तुम कल झूमते आये थे
अब राम ही जाने कब इसकी, पत्ती-पत्ती नीलाम हुई!
था फ़ासिला चार ही अंगुल का, हाथों से किसीके आँचल का
वे सामने पर आये न कभी, सजने में ही रात तमाम हुई
कल भूल से हमने डाल में से एक फूल गुलाब का तोड़ लिया
सुनते हैं इसी एक बात पे कल, वह डाल बहुत बदनाम हुई