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"जो जीवन में दुख की घटा बन गयी है / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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मगर बढ़ते-बढ़ते सभा बन गयी है
 
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नज़र खोई-खोई, कदम लड़खड़ाये
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तुम्हारी भी यह क्या दशा बन गयी है!
 
तुम्हारी भी यह क्या दशा बन गयी है!
  

09:53, 2 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


जो जीवन में दुख की घटा बन गयी है
वही काव्य में प्रेरणा बन गयी है

शुरू में तो दो-चार थे सुननेवाले
मगर बढ़ते-बढ़ते सभा बन गयी है

नज़र खोई-खोई, क़दम लड़खड़ाये
तुम्हारी भी यह क्या दशा बन गयी है!

कहाँ मीर-ग़ालिब की गज़लें, कहाँ मैं!
बनाने से थोड़ी हवा बन गयी है

गुलाब! अब पँखुरियों की रंगत कहाँ वह
भले रूह तुमसे सिवा बन गयी है