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जो मेरे दिल को भा जाए कहाँ वह इन हसीनों में / विजय 'अरुण'
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जो मेरे दिल को भा जाए कहाँ वह इन हसीनों में
चमक कैसे मिलेगी चाँद सूरज की नगीनों में।
जो माहिर जौहरी है वह मुझे पहचान लेते हैं
मिला दे मुझ को बेशक कोई कितने ही नगीनों में।
मुहब्बत है, नहीं ये हिर्स<ref>लालच</ref> का पौदा कि फैलेगा
ये वह है बेल जो फैले कहीं जा कर महीनों में।
हूँ क़ायल मैं भी पर्दे का मगर इस का नहीं क़ायल
कि होगी पाकदामानी<ref>सच्चरित्रता</ref> फ़क़त पर्दानशीनों में।
मिरे हाकिम! किसानों की तरफ़ से मत हो बेपरवा
'अरुण' जो अन्न उगता है, तो उगता है ज़मीनों में।
शब्दार्थ
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