भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"झलक भी प्यार की कुछ उसमें मिल गयी होती / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) |
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 20: | पंक्ति 20: | ||
कहाँ से आती ये रंगत तुम्हारी सूरत पर | कहाँ से आती ये रंगत तुम्हारी सूरत पर | ||
− | नहीं | + | नहीं किसीकी जो आंखों में रह गयी होती |
<poem> | <poem> |
01:37, 25 जून 2011 का अवतरण
झलक भी प्यार की कुछ उसमें मिल गयी होती
हमारी जांच जो दिल की नज़र से की गयी होती
हमारे मन की उमंगों से खेलनेवाले
हमारे प्यार की तड़पन भी देख ली होती!
गए तो छोड़ के दुनिया की आँधियों में हमें
कभी तो धूल भी आँचल से पोंछ दी होती
वो एक बात जो दम भर में चलते वक्त हुई
वो एक बात तो पहले भी हो गयी होती!
कहाँ से आती ये रंगत तुम्हारी सूरत पर
नहीं किसीकी जो आंखों में रह गयी होती