भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"झील का ठहरा हुआ जल / माहेश्वर तिवारी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माहेश्वर तिवारी |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> उंगलियों से...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) छो ("झील का ठहरा हुआ जल / माहेश्वर तिवारी" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop]) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:01, 21 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
उंगलियों से कभी
हल्का-सा छुएँ भी तो
झील का ठहरा हुआ जल
काँप जाता है।
मछलियाँ बेचैन हो उठतीं
देखते ही हाथ की परछाइयाँ
एक कंकड़ फेंक कर देखो
काँप उठती हैं सभी गहराइयाँ
और उस पल झुका कन्धों पर क्षितिज के
हर लहर के साथ
बादल काँप जाता है।
जानते हैं हम
जब शुरू होता कभी
कँपकँपाहट से भरा यह गन्दुमी बिखराव
टूट जाता है अचानक बेतरह
एक झिल्ली की तरह पहना हुआ ठहराव
जिस तरह ख़ूंख़ार
आहट से सहमकर
सरसराहट भरा जंगल काँप जाता है।