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टेसू के फूलों के भारी हैं पाँव / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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टेसू के फूलों के
भारी हैं पाँव

रूप दिया
प्रभु ने पर
गंध नहीं दी
पत्ते भी
छीन लिए
धूप ने सभी

सूरज अब मर्जी से
खेल रहा दाँव

मंदिर में
जगह नहीं
मस्जिद अनजान
घर बाहर
ग्राम नगर
करते अपमान

नहीं मिली छुपने को
पत्ती भर छाँव

रँग अपना
देने को
पिसते हैं रोज
फूलों सा
इनका मन
भूले सब लोग

जंगल की आग कहें
सभ्य शहर गाँव