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डगरैया / अशोक कुमार

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मैं हामिद नहीं था
और मुझे मेले में
डगरैया ही चाहिए था

घंटी लगी टुन-टुन बजती
डगरैया

मौसी ईया लाख कहती रह गयीं
बबुआ कुछ खा लो
जलेबी है मेले में लजीज
कचौरी है मेले में खस्ता

मुझे अपनी दादी या माँ की
कोई चिंता नहीं थी
कि उनके हाथ जलते हैं कि नहीं
मुझे अपनी भी चिंता कहाँ थी
कि भूख लगती है कि नहीं

मुझे तो चाहिए थी वही
घंटी लगी टुन-टुन बजती
डगरैया

शायद डगरैये ने
मुझे इसलिए रिझाया था
कि डगरैया आगे बढ़ता था
तो हम भी आगे बढ़ते थे
मधुर संगीत के साथ
शायद जीवन में
आगे बढ़ने के लिए
किसी मधुर संगीत की
ज़रूरत होती थी

मेरा भी डगरैया
घर पहुँचते ही खेत आया था
डगर में ही
हामिद के दोस्तों के
खिलौनों की तरह

अब जब भी देखता हूँ
डगरैया
ज़िन्दगी डगर ही लगती है
जहाँ समय एक डंडे से
मुझे हाँक रहा होता है
और मैं घिस रहा होता हूँ
उसी डगर पर।