भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
जनम-जनम का देना था वह जनम-जनम का पावना
बाँध सजल अंचल में, करुणा के आँसू के की डोर से
जो चुपके दे डाला तुमने काँप रही दृगकोर से
वह तो मेरा प्राप्य सदा का, दीप हृदय की साध का
जीवन के उजड़े तट पर जो नाव बँधी बेपाल की
उस पर ही चढ़कर अब जाना सातों सागर पार है
अश्रु सजल नयनों का चुंबन लगता और सुहावना लुभावना
टूट न जाय कहीं चेतनता, पल तो तुम्हें विराम दूँ
बनी रहे विस्मित प्राणों में एक सजल संभावना
तुमने जो कुछ तुमने दिया प्राण के साथ सहेज सुहावना
जनम-जनम का देना था वह जनम-जनम का पावना
<poem>