भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुमने सोचा था ज़वाल-ए-ज़ीस्त से डर जाऊँगा / ज़ाहिद अबरोल

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र 'द्विज' (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:55, 27 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिया-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



तुम ने सोचा था ज़वाल-ए-ज़ीस्त से डर जाऊंगा
अनसुनी इक दास्तां बन कर यूं ही मर जाऊंगा

एक ख़ुशबू हूं सिमटना मेरे बस में भी नहीं
तेरे दिल तक आ गया हूं तो बिखर कर जाऊंगा

ढूंढ लेना कोई भी तस्वीर अपने काम की
मैं तो कैनवस को फ़क़त रंगों से ही भर जाऊंगा

मुझको पानी, मेरे पाओं को हवा अब दो न दो
चन्द लम्हों का तो मेहमां हूं अभी झर जाऊंगा

देख आया हूं मैं हर इक दोस्त की दरियादिली
हर भरम को तोड़ कर अब अपने ही घर जाऊंगा

मैं ने “ज़ाहिद” ख़ुद से इक अहद-ए-सफ़र भी कर लिया
मंज़िलों तक तय हुए रस्तों से हट कर जाऊंगा

शब्दार्थ
<references/>