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"तुम ने ये क्या सितम किया ज़ब्त से काम ले लिया / शकील बँदायूनी" के अवतरणों में अंतर

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ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो राह-ए-आम तक न पहुँचे
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मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे
  
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो राह-ए-आम तक न पहुँचे <br>
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मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे <br><br>
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तेरा हाथ ज़िन्दगी भर कभी जाम तक न पहुँचे  
  
मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी <br>
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नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
तेरा हाथ ज़िन्दगी भर कभी जाम तक न पहुँचे <br><br>
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नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है <br>
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वो नवा-ए-मुज़महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे <br><br>
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वो सदा-ए-अहले-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे  
  
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उन्हें अपने दिल की ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं
वो सदा-ए-अहले-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे <br><br>
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मैं जो उनसे रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे  
  
उन्हें अपने दिल की ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं <br>
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ये अदा-ए-बेनिआज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मैं जो उनसे रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे <br><br>
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मगर ऐसी बेरुख़ी क्या के सलाम तक न पहुँचे  
  
ये अदा-ए-बेनिआज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक <br>
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जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी
मगर ऐसी बेरुख़ी क्या के सलाम तक न पहुँचे <br><br>
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उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे  
  
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वही इक ख़मोश नग़्मा है "शकील" जान-ए-हस्ती  
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे <br><br>
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जो ज़ुबाँ तक न आये जो क़लाम तक न पहुँचे  
 
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जो ज़ुबाँ तक न आये जो क़लाम तक न पहुँचे <br><br>
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14:12, 20 अप्रैल 2016 के समय का अवतरण

 
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो राह-ए-आम तक न पहुँचे
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे

मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तेरा हाथ ज़िन्दगी भर कभी जाम तक न पहुँचे

नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

वो नवा-ए-मुज़महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन
वो सदा-ए-अहले-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे

उन्हें अपने दिल की ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं
मैं जो उनसे रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे

ये अदा-ए-बेनिआज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बेरुख़ी क्या के सलाम तक न पहुँचे

जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे

वही इक ख़मोश नग़्मा है "शकील" जान-ए-हस्ती
जो ज़ुबाँ तक न आये जो क़लाम तक न पहुँचे