भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"तू जो मुझसे जुदा नहीं होता / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
 
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=  
+
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
 
}}
 
}}
 
{{KKCatGhazal}}
 
{{KKCatGhazal}}
 
<poem>
 
<poem>
 
तू जो मुझसे जुदा नहीं होता
 
तू जो मुझसे जुदा नहीं होता
मैं ख़ुदा से ख़फ़ा नहीं होता  
+
मैं ख़ुदा से खफ़ा नहीं होता
  
 
ये जो कंधे नहीं तुझे मिलते
 
ये जो कंधे नहीं तुझे मिलते
तो इतना तू बड़ा नहीं होता  
+
तू तो इतना बड़ा नहीं होता
  
सच की ख़ातिर न खोलता मुख गर
+
चाँद मिलता न राह में उस रोज
सर ये मेरा कटा नहीं होता
+
इश्क़ का हादसा नहीं होता
 
+
चांद मिलता न राह में उस रोज़
+
इश्क का हादसा नहीं होता  
+
  
 
पूछते रहते हाल-चाल अगर
 
पूछते रहते हाल-चाल अगर
फ़ासला यूँ बढ़ा नहीं होता  
+
फ़ासला यूं बढ़ा नहीं होता
  
 
छेड़ते तुम न गर निगाहों से
 
छेड़ते तुम न गर निगाहों से
मन मेरा मनचला नहीं होता  
+
मन मेरा मनचला नहीं होता
  
 
होती हर शै पे मिल्कियत कैसे
 
होती हर शै पे मिल्कियत कैसे
तू मेरा गर हुआ नहीं होता  
+
तू मेरा गर हुआ नहीं होता
  
 
कहती है माँ, कहूँ मैं सच हरदम
 
कहती है माँ, कहूँ मैं सच हरदम
क्या करूँ, हौसला नहीं होता  
+
क्या करूँ, हौसला नहीं होता
</poem>
+
 
 +
 
 +
 
 +
 
 +
 
 +
(अनन्तिम, अप्रैल-जून 2011)

19:26, 7 मार्च 2016 के समय का अवतरण

तू जो मुझसे जुदा नहीं होता
मैं ख़ुदा से खफ़ा नहीं होता

ये जो कंधे नहीं तुझे मिलते
तू तो इतना बड़ा नहीं होता

चाँद मिलता न राह में उस रोज
इश्क़ का हादसा नहीं होता

पूछते रहते हाल-चाल अगर
फ़ासला यूं बढ़ा नहीं होता

छेड़ते तुम न गर निगाहों से
मन मेरा मनचला नहीं होता

होती हर शै पे मिल्कियत कैसे
तू मेरा गर हुआ नहीं होता

कहती है माँ, कहूँ मैं सच हरदम
क्या करूँ, हौसला नहीं होता





(अनन्तिम, अप्रैल-जून 2011)